Tuesday, 18 August 2015

यह अवसर न आने दें

रोटी और आजादी दोनों महत्वपूर्ण होते हुए भी इन्हें एक ही तराजू में सहज रूप से नहीं तौला जा सकता। रोटी की कीमत देकर आजादी की कमाई करने का उदाहरण जिस गर्व और प्रेरक ढंग से दोहराया जाता है, आजादी गँवा कर रोटी प्राप्त करने की प्रवृति और उस उपलब्धि को उसी प्रकार घृणा और अपमान की दृष्टि से देखा जाता है। जीने के लिए रोटी जरूरी है और रोटी से जुड़े सभी सवालों का समाधान होना भी चाहिए। किन्तु यह स्मरण रखना आवश्यक है कि जिसके लिए जीवन तक अर्पित करने का कष्टसाध्य कर्म करने के लिए मानव सहज सन्नद्ध हो जाता है, उसका मूल्य रोटी के बाजार में खड़े होकर नहीं लगाया जा सकता। 

यह सवाल आज इसलिए उठाना पड़ रहा है कि देश के अनेक भागों से यह आवाज उठने लगी है कि, ‘वह आजादी किस काम की, जो रोटी न दे सके।इस प्रश्न पर प्रतिप्रश्न यह है कि आजादी गँवाकर रोटी प्राप्त करना क्या पालतू कुत्तों की गुलाम जिंदगी से भी बदतर नहीं होता? उत्तर है -होता है।क्योंकि कुत्तों का मालिक तो उसे सुबह-शाम प्यार से गोद में लेकर, रात में बिस्तर पर सुलाकर उसे अपना प्यार भी देाता है, किन्तु आजादी लुटाकर और रोटी जुटाकर अपना पेट भरने वाले गुलाम इंसानों को मिलती है -यातनाएं, घृणा और मौत। यह मानव की ईश्वर-प्रदत प्रकृति के प्रतिकूल है। 

दुर्देव से अपने देश में आजादी का जो अर्थ लगाया गया था या लगाया जा रहा है, वह उसकी मूल प्रवृति से सर्वथा विपरीत है। शायद यही कारण है कि अनमोल आजादी को माटी के मोल बेचकर रोटी खरीदने की चर्चा चल पड़ी है। यदि हम आजादी का अर्थ समझते होते, तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि अपने देश में आज की अराजकता, हिंसा, विद्वेष और पतन की स्थिति दिखाई न देती। आजादी का मतलब सृजन की स्वतंत्रता है, विनाश की छूट नहीं। बोलने का अधिकार, गाली बकने की छूट से नहीं, अपितु सौजन्यता का वातावरण उत्पन्न करने के अधिकार से जुड़ा है। लेखन-स्वातंत्रय की नींव में समाज की प्रज्ञा, उसकी सर्जनात्मक शक्ति के जागरण की मनीषा और अभिलाषा निहित है। स्वतंत्रता एक ऐसी भावना है, जो उन समस्त क्रिया कलापों के लिए पोषक वातावरण बनाने की प्रेरणा देती है, जिससे देश का सर्वांगीण विकास हो सके। किन्तु आज हमने आजादी को उच्छृंखलता का पर्यायवाची बना दिया है। हमारे कर्मों ने इसके अर्थ को अनर्थ में बदल दिया है। हमने शायद यह निश्चित रूप से मान लिया है कि हम ने केवल किसी की हत्या, अपितु उसकी चरित्र-हत्या करने के लिए भी आजाद हैं। हम चाहे काम करें या न करें, किन्तु काम करके और कमा कर खाने वाले के मुँह की रोटी छीनने के लिए आजाद हैं। हम आजाद हैं कि समाज के सामने ऐसा साहित्य प्रस्तुत करें, जिससे उसके मन में घृणा और विद्वेष उत्पन्न हो सके और चारित्रिक पतन के प्रति उसकी चिढ़ समाप्त हो जाये और शाश्वत की उपलब्धि का प्रयास मूर्खता मानी जाने लगे। समाज का सामान्य चिंतन, अनैतिकता और भोग-विलास के जंगल में भटक कर चुक जाए। 

स्मरण रहे, इसे आजादी नहीं कहा जा सकता, इसे कहा जाता है -विक्षिप्त-विभ्रमित मानस की उद्दण्डता, निराशाग्रस्त व्यक्तियों द्वारा प्रारंभ की गई आत्मनाश की प्रक्रिया। आजादी आत्मानुशासन और संयम की कोख से जन्म लेती है। वह रोटीपाने का अधिकार देती है, तो रोटी कमाने की प्रेरणा भी देती है। वह अर्जन का अधिकार देती है तो वितरण का निर्देश भी देती है। उसमें संग्रह की स्वतंत्रता है, तो सेवा का कर्तव्य भी निहित है। 

अतएव जो लोग आज की आजादी को व्यर्थ मानकर रोटी की तराजू पर उसे तौलने का प्रयत्न कर रहे हैं, उन्हें भारत के आपातकालीन 19 महीनों का स्मरण कर लेना चाहिए। चाहे राजनीतिज्ञ हो या पत्रकार, किसान हो या कर्मचारी, व्यापारी हों या उपभोक्ता, न्यायाधीश हों या अधिवक्ता, अध्यापक हों या अभिभावक - सभी  को अन्तर्मुख होकर सोचना चाहिए कि आपातकाल के समय भी रोटी तो मिल रही थी, फिर बेचैनी क्यों थी? उस काल को काला अध्याय’, ‘गुलामी का कालऔर तानाशाही शासनके नाम से क्यों पुकारा जाता है? आजादी क्या होती है, उसकी पहचान उस समय हम सबको हुई होगी। गुलाम देश की जनता को रोटी नहीं मिलती, ऐसी बात नहीं है, किन्तु मनुष्य केवल रोटी के लिए तो नहीं जन्मा है। रोटी और उससे जुड़े सवालों का जवाब खोजने के लिए समाज को जगाना, उसकी कर्मशक्ति को ललकारना उचित है और करणीय भी, किन्तु आजादी की कीमत पर इन सवालों का समाधान खोजना सर्वथा निन्दनीय है और त्याज्य भी। जिन लोगों ने रोटीको ही सब कुछ मान कर आजादीगँवाने का रास्ता बनाना शुरू कर दिया है, उनसे सावधान रहने की जरूरत है। वे लोग जिन देशों से सम्बन्धित हैं वहाँ आदमी नहीं, गुलाम रहते हैं। जिन्हें सोचने, बोलने, लिखने और कुछ करने की भी आजादी नहीं है। 

यह चिंतन भारत की मूल प्रवृति के विरुद्ध है -इस राह पर ले जाने के जितने भी प्रयास जहाँ कहीं भी चल रहे हैं, उन्हें असफल बनाने की जरूरत है। अन्यथा अभी-अभी प्राप्त दूसरी आजादीपुनः छिन जाने का खतरा है और फिर तीसरी आजादी के लिए कितनी प्रतीक्षा करने पड़ेगी, कितना लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा, कितना बलिदान देना पड़ेगा कुछ कहा नहीं जा सकता। आन्दोलन की आजादी का उपयोग करके असंतोष की आवाज उठाएं अवश्य किन्तु ध्यान रहे कि उसकी मर्यादा का कभी उल्लंघन न होने पाए। अपनी आवाज सृजन की सीमा लांघ कर विनाश के कगार से न टकराये। यदि हमने यह सतर्कता न रखी तो जिन संविधान प्रदत अधिकारों की लहरों पर सवार होकर हम अपनी मांगों की पूर्ति कराना चाहते हैं, वे अधिकार भी छिन जाएंगे और तब हम यह भी नहीं कर पाएंगे कि हमारे पास भूख मिटाने के लिए रोटी नहीं है, हमें रोटी दो।    

- भानुप्रताप शुक्ल

(पुस्तक भानुप्रताप शुक्ल समग्र - खण्ड 4’ से साभार)