Wednesday, 16 July 2014

दिव्य और भव्य भारत का निमार्ण करो बेटियों

मातृशक्ति कितनी त्रसित है यह बात हम सब जानते हैं। किस तरह बेटियों के साथ बलात्कार करके उन्हें वृक्षों
पर लटकाकर नृशंसता का परिचय दिया जा रहा है, हम सब लोग देख रहे हैं। ऐसे निराशा भरे वातावरण के बीच भी हम लोग कोशिश कर रहे हैं कि बेटियों का जीवन साहस से ओत-प्रोत हो इसी के लिये परमशक्ति पीठ द्वारा ‘बालिका व्यक्तित्व विकास शिविर’ जैसा सुन्दर आयोजन प्रतिवर्ष किया जा रहा है। घोड़े पर सवार होकर द्रुत गति से घुड़सवारी करतीं, मार्शल आर्ट जैसी आत्मरक्षक कलाओं को सीखती और अवसर पड़े तो अग्निकुण्ड से कूदकर निकलने का अभ्यास करतीं नन्हीं बेटियों को देखकर लगता है कि आने वाले कल में इन पर बुरी नीयत रखने वालों के मन इनकी शक्ति के आभास से निश्चित ही काँप उठेंगे। कई बार हमारा समाज पत्थर की तरह जड़ हो जाता है जिसे जाग्रत करने की आवश्यकता होती है। मैं बेेटियों से हमेशा कहा करती हूँ कि कभी भी परिस्थिति में किसी के मुखापेक्षी मत बनो, अर्थात् अपनी हर छोटी-बड़ी ज़रूरत के लिए किसी का मुख देखना या पूर्णरूपेण उस पर निर्भर हो जाना या फिर देवी-देवताओं की तरफ देखना, ठीक नहीं है। ‘देव-देव’ तो आलसी और अकर्मण्य ही पुकारा करते हैं। जब भी कभी देश की बेटी के परिचय की बात आती है तो उसकी जाति या बिरादरी उसका परिचय नहीं होती है। यदि बेटियों से उनका परिचय पूछा जाए तो वास्तव में उनका परिचय एक ही है कि:

मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूँ
मातृभूमि पर मिटने वाले मतवालों की पीर हूँ
उन वीरों की दुहिता जो हँस-हँस झूला झूल गए
उन षेरों की माता हूँ, जो रण-प्रांगण में जूझ गए
मैं जीजा की अमर सहेली, पन्ना की प्रतिछाया हूँ
हाड़ी की हूँ अमिट निषानी, मैं जसवन्त की माया हूँ
कृष्णा के कुल की मर्यादा, लक्ष्मी की षमषीर हूँ
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूँ
हल्दीघाटी की रज का सिन्दूर लगाया करती हूँ
अरिषोणित की लाली से मैं पाँव रचाया करती हूँ
पद्मावत हूँ रतनसिंह की, चूड़ावत की सेनानी
मैं जौहर की भीड्ढण ज्वाला, रणचण्डी हूँ पाषाणी
माँ की ममता, नेह बहन का और पत्नी का धीर हूँ
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूँ
कालिदास का अमर काव्य हूँ, मैं तुलसी की रामायण
अमृतवाणी हूँ गीता की, घर-घर होता पारायण
मैं भूषण की शिवा बावनी, आल्हा का हुंकारा हूँ
सूरदास का मधुर गीत मैं, मीरा का इकतारा हूँ
वरदायी की अमर कथा हूँ, रण गर्जन गंभीर हूँ
मेरा परिचय इतना कि मैं भारत की तस्वीर हूँ

भारत की तस्वीर यानि क्या? जब हम माँ भारती का दर्शन करते हैं तो वहाँ मर्यादा है, वहाँ ज्ञान है, विज्ञान है, सुख-दुःख में अपने चित्त में समत्व को धारण करने की प्रेरणा है। तत्व की दृष्टि से सारे संसार में एक परमात्मा को अद्वैत भाव से दर्शन करने का वहाँ पर संस्कार है और व्यवहार जब आए तो अनासक्त भाव से अपने-पराए
के भेद बिना सबको तृप्त करने की अभिलाषा सदैव रखने की जहाँ परम्परा है। ये मर्म है हमारी संस्कृति का। हाँ, हमारे गुलामी के काल ने ज़रूर हमें हमारे स्वरूप से वंचित किया। बाल विवाह की प्रथा देश में प्रारंभ हुई। स्त्री को पर्दे में ढँका गया लेकिन उस काल की समाप्ति के बाद स्थितियाँ ये बनीं कि उसकी व्याकुलता हिमालय से भी ज्यादा ऊँची हो गई। मैं मानती हूँ कि घूँघट में कैद रखकर स्त्री की सारी क्षमताओं का गला घोंटा गया था। मुझे पता है कि घूँघट से बाहर आने की व्याकुलता कैसी होती है। लेकिन क्या उस व्याकुलता में सारे वस्त्र ही उतर जाएं? क्या स्त्री अपनी तथाकथित ऊँचाईयों को छूने के लिये निर्वस्त्र होकर फैशन परेड करती फिरे? तुम्हें क्या ज़रूरत है कि अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये रात के बारह बजे तक नेताओं के बंगलों पर उनसे मिन्नतें करती रहो। अपनी महत्वाकांक्षाओं के पूर्ति के लिये अपने शील को न्यौछावर करती स्त्री शोभा नहीं देती। अगर स्त्री में मुक्त होने की बैचेनी थी तो उसमें से उसके असली स्वरूप का उदय होना चाहिये था, लेकिन उसने पश्चिमी जगत के तौर-तरीकों को अपना लिया। जो भारत की स्त्री है, उसका अपना एक गौरव है, उसकी अपनी एक गरिमा है और उस गरिमा के साथ जीना ही हमें वंदनीय बनाता है। मुझे एक बात कहनी है भारत की बेटियों से कि एक बार कौवे को बहुत तकलीफ हुई बगुले का गोरापन देखकर। उसे लगा कि मेरे कालेपन की सारी दुनिया निंदा करती है इसलिये मुझे गोरा होना चाहिये, बगुले जैसा। यह सोचकर वह नदी किनारे गया और अपने शरीर को पत्थर से घिसने लगा। गोरा होने के चक्कर में यह सब करते हुए वह लहूलुहान हो गया, उसके पंख तक बिखर गए। एक स्थिति ऐसी भी आई जब वह मृत्यु के आलिंगन में चला गया। क्यों हुई उसकी ऐसी दशा? क्योंकि उसे अपने स्वरूप पर, अपने अस्तित्व पर गौरव नहीं था। अपने स्वरूप से असंतुष्ट कौवा, बगुले जैसा होना चाहता था लेकिन हुआ क्या? उसे अपने प्राणों से ही हाथ धोने पड़ गए।

जब हम किसी दूसरे का अंधानुकरण करते हैं तब हम कहीं न कहीं अपने अस्तित्व के हंता बनकर उसकी हत्या कर बैठते हैं। इसलिये पश्चिम के जगत की जो समस्याएं हैं उनके समाधान उनके पास होंगे लेकिन हमारी समस्याओं के समाधान हमें खुद तलाशने हांेगे। आज भारत की नारी जिस दौर से गुजर रही है, देश जिस दौर से गुजर रहा है, जहाँ पर बलात्कार की घटना को ‘लड़कों की गलती’ माना जा रहा है, स्त्री-पुरुष के बीच यह पक्षपातपूर्ण रवैया अत्यन्त खेदजनक है। मैंने बरसों पहले दुर्गावाहिनी के माध्यम से देश की मातृशक्ति को वंदनीय बनाने का कार्य अपनी तमाम बहनों के साथ किया था लेकिन आज क्या स्थिति है। नारी पर अत्याचार तो हो रहें हैं लेकिन कहीं-कहीं स्त्री का आचरण भी इसके लिए जिम्मेदार है। वास्तव में हम अपने आचरण से ही वंदनीय और निंदनीय होते हैं। बेटियाँ ऐसा आचरण नहीं करें कि जिसके फलस्वरूप माँ-बाप को कभी यह कहना पड़े कि तू पैदा होने से पहले मर जाती तो अच्छा था क्योंकि तुम बाप को सीना तानकर चलने का अवसर दे सकती हो लेकिन तुम्हारा ही आचरण कई बार उन्हें शर्मसार करके जीवन भर गर्दन नीची करके चलने और जीते-जी मर जाने के लिये विवश भी करता है। इसलिए जगत के आकर्षणों में रहकर भी अपने शील और मर्यादा को बनाए रखो भारतमाता की बेटियों। हमेशा यह मानकर चलो कि अपने स्वरूप में विराजमान रहना ही हमारी गरिमा है। हम प्रतिवर्ष वात्सल्य ग्राम, वृंदावन में आयोजित होने वाले ‘बालिका व्यक्तित्व विकास शिविर’ में देश भर से आई बेटियों को शारीरिक और बौद्धिक रूप से सक्षम बनाने का प्रयत्न इसलिये नहीं करते कि वे किसी पर अत्याचार करें, बल्कि यह प्रशिक्षण उनके अपने बौद्धिक स्तर को विकसित करने और संकट के दौरान आत्मरक्षा की विभिन्न कलाओं का उपयोग कर स्वयं के शील की रक्षा करने के लिये प्रदान किया जाता है। हम उन्हें यह सिखाते हैं कि यदि कोई तुम पर अत्याचार करे तो तुम उसे चुपचाप झेलो नहीं। क्योंकि अत्याचारी जितना पापी है, उसे सहन करने वाला भी उसमें सहभागी होने का पापी है क्योंकि उसे चुपचाप सहना यानि उसे बढ़ावा देना है। बेटियाँ सीना तानकर हर विपति के आगे खड़ी हो सकें, उनके यह भाव प्रबल हो कि वे ‘अबला’ नहीं बल्कि ‘सबला’ हैं। प्राचीन काल की जो महिलाएं होती थीं, उनको आठ-नौ बच्चे होते थे। अपनी दिनचर्या निपटाते हुए उन बच्चों का लालन-पालन करना, गृहकार्य के बाद खेतों में काम करना, कुएं से पानी भरना जैसे अनेक कार्य वो करती थीं, वो किसी एक प्रेमी की प्रेमिका या किसी एक पति की पत्नी भर ही नहीं होती थीं बल्कि वो चाची, ताई, बुआ, मौसी, भाभी बनकर जाने कितने रिश्तों को निभातीं थीं। उस समय की वो एक स्त्री अपनी विभिन्न भूमिकाओं में पूरे कुटुम्ब को तृप्त करती थी। अद्भुत दृश्य होता था उस समय के परिवारों में, स्त्री की उस भूमिका का। चेहरों की रौनक देखते बनती थी। पापियों को दुत्कारने में वह स्त्री सिंहनी बन जाती थी क्योंकि गृहस्थ आश्रम की उस कठिन तपस्या में उसके भीतर गजब का आत्मबल पैदा हो जाया करता था। वह वत्सला भाव से अपनी संतानों का लालन-पालन करती थी। सोच सकते हो आप, नौ महीनों तक बच्चे को गर्भ में रखना, उसे जन्म देना, रात-रात भर जागकर अपने बच्चों की देखभाल करना, यह सब उस समय की स्त्री बिना किसी झल्लाहट के किया करती थी। क्या कोई पिता केवल एक रात के लिए जाग सकता है अपने बच्चे के पालन में? ईश्वर ने जितना सामथ्र्य और धैर्य स्त्री को दिया है, उतना पुरुष को नहीं। ईश्वर की यह देन अद्भुत है। लेकिन मेरा निवेदन है बेटियों, कि पुरुष बनने की होड़ में तुम ईश्वर के इस उपहार को खो मत देना। तुम पुरुष की काॅर्बन काॅपी नहीं हो। तुम स्त्री हो। पुरुष यदि अहंकार के केन्द्र में खड़ा है बेटियों, तो तुम प्रेम की धुरी बनना क्योंकि अभिमान का शिखर तभी झुकेगा जब तुम्हारा समर्पण गहरा होगा।

तुम समर्पण कर सकती हो, तुम अर्पित हो सकती हो। तुम्हें अपनी सार्थकता को सिद्ध करना है बेटियों, क्योंकि आज तो स्त्री का ममत्व भी कहीं खोता जा रहा है। जब कैरियर बनता है ना तुम्हारा, जब पाॅकेट में मनी आती है ना, तुम बहुत सी बेटियाँ अपने पिता तक से भी ठीक से बात नहीं करती हैं। जिस ‘अर्थ’ के दम पर तुम अभिमान से फूल जाती हो ना, वही कभी-कभी ‘अनर्थ’ का कारण भी बन जाता है। फिर तुम ‘अर्थ’ के अर्थ को तो समझती हो लेकिन रिश्तों के अर्थ को भूल जाती हो। इसलिए अर्थ वो नहीं जो अनर्थ करवाए। अर्थ वो जो धर्म पर स्थित करके संस्कार के पथ पर प्रशस्त करे। वो अर्थ शुचिता से भरा होना चाहिए, इसलिए शुचिता वह नहीं जो शील बेचकर प्राप्त की जाए। सफलता से ज्यादा बढ़कर सार्थकता का महत्व है। तुम एकाकी जीवन को भी सार्थकता से जी सकती हो। यदि आप शुद्ध मन से कार्य करते हो तो आनन्द छाया की तरह आपके पीछे-पीछे मंडराता है। मैं ऐसा ही दृश्य देखती हूँ उन शिक्षिकाओं के चेहरे पर जो बेटियों को सुसंस्कार देने में दिन-रात संलग्न हैं। शुद्ध मन से कार्य करते हुए उनके भीतर उस संतोष का जन्म होता है जो लाखों रूपये खर्च करके भी नहीं पाया जा सकता। 

वात्सल्य ग्राम के बालिका व्यक्तित्व विकास शिविर के समापन समारोह में मैंने देखा कि मात्र दस दिनों के शिविर में शिक्षिकाओं ने अपना पसीना बहाकर जिस लगन के साथ बेटियों को व्यक्तित्व विकास की जिन कलाओं से रूबरू करवाया, वह असाधारण था। मानों केवल दस दिनों में उन्हें दस-बीस वर्ष की शिक्षा मिल गई हो। इतनी भयंकर गर्मी के बीच रहकर कठिन अभ्यासों के बीच दक्षता को पाना सहज न था। लेकिन शिक्षिकाओं की मेहनत और प्रशिक्षणार्थी बेटियों की लगन ने कमाल कर दिखाया। मैं देख रही थी कि समापन समारोह में बैठे तमाम लोग गर्मी से परेशान दिख रहे थे लेकिन वह गर्मी अपनी विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन करती बेटियों पर कोई असर करती नहीं दिख रहा था। क्यों हुआ ऐसा? सीधी बात है कि यदि मन की लगन गहरी है तो फिर कोई भी विपरीत परिस्थिति शरीर या मन को प्रभावित नहीं कर सकती। यही है इन्द्रियों को साधकर आगे बढ़ने की कला।

यदि मन में उत्साह है तो फिर जीवन की प्रत्येक राह आसान हो जाती है, लेकिन उत्साह तभी आता है जब
हमारी राह शुचितापूर्ण हो। हमारा उत्साह तब संकल्प बनता है जब हम सब कुछ संभव मान लें। सूरत की एक प्रशिक्षणार्थी बेटी ने कहा कि ”अरे मुझे यहाँ आकर लगा कि मैं तो सब कुछ कर सकती हूँ।“ लेकिन मैं कहना चाहती हूँ बेटियों कि करना वो जो भारत को वन्दनीय बनाए। क्यांेकि देश भूमि से नहीं बल्कि हम लोगों की भूमिका से महानता के शिखरों को छूता है। हमें विचार करना होगा कि हमारी भूमिका देश को वन्दनीय बनाती है या निन्दनीय बनाती है। इस शिविर में भाग लेने आई बेटियों के माता-पिता को मैं वन्दन करती हूँ, जिन्होंने वात्सल्य पर भरोसा करके उनको यहाँ भेजा। मैं जानती हूँ कि आप सब अपने घरों में लाडो रानी बनकर रहती हो लेकिन यहाँ तो प्रातः चार बजे जागना और दिन भर परिश्रम करके रात ग्यारह बजे सोना होता था। आज आप सब बेटियों का विश्वास देखकर मुझे लग रहा है कि भले ही आपके माता-पिता ने स्वर्ण बनाकर आपको दस दिन पहले हमें सौंपा था लेकिन इस शिविर के माध्यम से आज हम आप सब बेटियों को कुन्दन बनाकर उन्हें सौंप रहे हैं। आपने अपने कठिन परिश्रम से इस बात का गौरव करने का अवसर मुझे प्रदान किया है। आप जहाँ भी रहो, वात्सल्य के इस प्रशिक्षण से अपने गौरव को स्थापित करो बेटियों, यह मेरा आशीर्वाद है। अभी थोड़े दिनों पहले भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रभाई से मुलाकात हुई तो उन्होंने मुझसे पूछा कि -‘दीदी माँ, आपको कैसा लग रहा है यह राजनैतिक परिवर्तन?’ मैंने कहा -‘नरेन्द्रभाई, ऐसा लग रहा है जैसे बरसों-बरस से नागपाश में जकड़ा यह देश अब मुक्त हो गया हो। आप भव्य भारत का निर्माण कीजिए, मेरे देश की बेटियाँ उसे दिव्यता प्रदान करेंगी।’ बेटियों, देश के नवनिर्माण में आपकी सक्रिय और सार्थक भूमिका हो, यह मेरा सपना है। आपके सुन्दर भावों को देखकर आज लग रहा है कि मेरा यह सपना ज़रूर पूर्ण होगा। भव्यता और दिव्यता दोनों के मिलन से हमारा यह देश शिखर पर पहुँचकर सारी दुनिया का मार्गदर्शन करेगा। उन्नति के शिखरों पर पहुँचकर भी विनम्रतापूर्वक झुकने का भाव जिस दिन हमारे भीतर होगा, निःसन्देह उस दिन हम विश्वगुरु होंगे। मुझे विश्वास है बेटियों कि भारत को विश्व का चहेता बनाने वाली संतानें तुमसे ही उत्पन्न होंगी। अपने कृतित्वों से वह सब करो, जिसके कारण करोड़ों भारतवासियों के मस्तक गर्व से ऊँचे हो सकें।

-  दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
साभार - वात्सल्य निर्झर, जुलाई २०१४  अंक