परमात्मा ने जीवन को एक अद्भुत क्षमता दी है और वह यह है कि लाख प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी वो निरन्तर आगे बढ़ने की कोशिशें करता है। बिलकुल वैसे ही जैसे एक पहाड़ी नदी तमाम अवरोधों के बाद भी निरन्तर आगे बढ़ती रहती है। पिछले साल उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा ने जैसे वहाँ जिंदगी को स्तब्ध कर दिया था लेकिन जिजीविषा ने कुछ ही दिनों में इस स्तब्धता को तोड़ दिया। वीरान होकर सिसक रहे दुर्गम पहाड़ी गाँवों की ओर कुछ वे साहसी कदम उठे, जिनका मन वहाँ की तबाही से आहत था, जो अपने मानव होने की सार्थकता को सिद्ध करना चाहते थे, सिसक रही मनुष्यता को ममत्व भरा सहारा देकर।
दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा जी उन्हीं चंद व्यक्तित्वों में से एक हैं, जिन्होंने उस त्रासदी को अन्तर्मन की गहराईयों तक अनुभव किया और अपनी संस्था ‘परमशक्ति पीठ’ के माध्यम से हिमालय की गोद में बसे उन गाँवों तक हरसंभव सहायता पहुँचाने का संकल्प लिया, प्रकृति के तांडव ने जिन्हें तोड़कर रख दिया था। राहत सामग्री वितरण इस क्रम की पहली आवश्यकता थी। लेकिन क्या उनके पुनर्वास के लिए बस यही कदम कारगर है? इस प्रश्न का उत्तर वात्सल्य की धारा में निरन्तर उठ रहे चिंतन के भँवर से निकला। दीदी माँ जी ने संस्था के कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया कि प्रभावित ग्रामवासियों को सहायता सामग्री वितरण के बाद वे इस बात के प्रयास करें कि ‘वात्सल्य स्वावलंबन प्रशिक्षण केन्द्रों’ के माध्यम से प्रशिक्षित होने के बाद ग्रामवासियों को स्वरोजगार के अवसर प्राप्त हो सकें। क्योंकि कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाये तो परिश्रमपूर्वक कर्म करके अपना जीविकोपार्जन करना मानव की सहज वृति है।
आपदा प्रभावित उत्तराखंड प्रवास के दौरान मुझे एक पहाड़ी गाँव में जाते हुए पगडंडी पर एक पैंसठ वर्षीया बुजुर्ग महिला मिली जो अपनी पीठ पर घास-पत्तों का भारी बोझ बांधे हुए थी। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि इस बोझे में कुछ जंगली वनस्पितयाँ हैं जिनको खाने पर गाय अत्याधिक पौष्टिक दूध देती है और उससे जो घी बनाया जाता है वह औषधीय गुणों से युक्त होता है। इस प्रकार से वह प्रतिदिन कठोर श्रम करके घाटी में जाकर अपने मवेशियों के लिए चारा इकट्ठा करती है और फिर उनसे प्राप्त दूध से बनाये गए घी को निकटवर्ती शहरों में बेचती है। हाड़तोड परिश्रम के बाद बनाया गया घी ही उनकी जीविका का एकमात्र साधन है। पिछले वर्ष केदारघाटी में हुई भयानक तबाही अपने साथ इनके उन मवेशियों को भी बहा ले गई, जिनके सहारे जीवन चलता था। कितनी बड़ी विडम्बना है कि समाज का यह पहाड़ी वर्ग जो लोगों के लिए पौष्टिक दुग्धोत्पाद बनाता हो, वह रूखे-सूखे भोजन को भी तरस जाये।
बहरहाल, दीदी माँ जी के करुणामयी मार्गदर्शन में परमशक्ति पीठ ने संकल्प लिया कि दूरदराज पहाड़ी गाँवों के उन परिवारों को निःशुल्क दुधारू गायों का वितरण किया जाये जिनके पास उसके अतिरिक्त गुजारे का और कोई साधन नहीं है। कार्ययोजना साकार हुई और आज कुछेक परिवार इस बात से खुश हैं कि इन गायों के माध्यम से वे भले ही थोड़ी, लेकिन स्वाभिमानपूर्ण आय से अपना गुजर-बसर कर सकेंगे। इस नन्हें प्रयत्न को यदि समाज का व्यापक सहयोग मिले तो न जाने कितने पहाड़ी परिवारों में फैला अभावों का अंधकार दूर हो सकेगा।
- देवेन्द्र शुक्ल
‘हमारे देश में इन दिनों अभावग्रस्तों को अनेक प्रकार की सुविधाएं देने की होड़ सी मची है। नाममात्र के शुल्क पर खाद्यान्न सामग्री देकर भूखी जिंदगियों को बचाना अच्छी बात है लेकिन यदि उन्हें जल्दी ही स्वाभिमानपूर्वक स्वरोजगार की जमीन पर नहीं खड़ा किया गया तो फिर वो जिंदगियाँ परिश्रम के पथ से हटकर आलसी हो सकती हैं, जिनके जीने का फिर कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। कितना अच्छा हो यदि हम उन्हें भोजन और आश्रय की तात्कालिक व्यवस्था उपलब्ध कराने के साथ ही इस बात पर भी ध्यान दें कि कैसे उन्हें छोटे-मोटे व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान किये जाएं ताकि वे अपने श्रम के दम पर अपना जीविकोपार्जन स्वयं कर सकें। किसी को रोटी खिलाना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना कि उसे रोटी के लिए धन कमाने लायक बनाना। परमशक्ति पीठ के माध्यम से हम आपदा प्रभावित उत्तराखंड की केदारघाटी में उन संभावनाओं को तलाशकर उन पर काम शुरू कर चुके हैं, जो वहाँ के निवासियों को स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हों। देश-विदेश के जो बंधु-भगिनियाँ हमारे से पुण्यकार्य से जुड़कर हमारा सहयोग कर रहे हैं, संस्था उनकी आभारी है। विश्वास है कि हमारे नन्हें प्रयास एक दिन जरूर विराट रूप धारणकर शेष समाज की प्रेरणा बन सकेंगे’
- दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा
साभार - वात्सल्य निर्झर, अप्रैल 2014